दोस्तों, आप सभी का हमारे एक और लेख के माध्यम से Yeshu Aane Wala Hai Blog में स्वागत है। आज के इस लेख के माध्यम से हम जानने वाले हैं, यीशु मसीह की प्रमुख शिक्षाएं क्या क्या है, इसके बारे में अच्छे से जानेगें। जैसे :- 1 . उध्दार के विषय में यीशु की शिक्षाएं, 2. दैनिक मसीही जीवन के विषय में यीशु की शिक्षाएँ, 3. फरीसियों और झूठे शिक्षकों के विषय में यीशु की शिक्षा, आदि। इन सभी बातों को जानने के लिए इस लेख को पूरा जरूर पढ़ें, ताकि आप इन बातों को और अच्छे से समझ सके। धन्यवाद
भूमिका
इस लेख में मैं यीशु मसीह की प्रमुख शिक्षाओँ का सार प्रस्तुत करने का प्रयास के रहा हूँ, जो उन्होंने इस पृथ्वी पर रहते हुए दी। येशु मसीह ने इस पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के काल में तीन लम्बे प्रवचन दिए। वो तीन प्रवचन ये थे:-
1. पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5 से 7 )
2. जैतून पर्वत के प्रवचन (मत्ती 24 और 25)
3. ऊपर वाले कमरे में दिया गया प्रवचन, यूहन्ना अध्याय 13 से 16 तक और सम्भवत: 17 अध्याय भी।
इनके अलावा उसने अनेक संक्षिप्त सन्देश भी दिए। किसी ने कहा है, कि यीशु मसीह ने पहाड़ी उपदेश में 18 विषयों का उल्लेख किया है। मत्ती 7:28,29 भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई, क्योकि वह उनके शास्त्रियों के समान नहीं, परन्तु अधिकारी की नाई उपदेश देता था।”
लूका 4:32, वे उसके उपदेश से चकित हो गए, क्योकि उसका वचन अधिकार सहित था।” लूका 4:22 “और सबने उसे सराहा, और जो अनुग्रह की बातें उसके मुँह से निकलती थी, उनसे अचम्भा किया।” कुछ बातों में उसकी शिक्षाएँ नई थी, क्रांतिकारी और मानवीय तर्क के विपरीत थी।
1. उद्धार के विषय में यीशु मसीह की शिक्षाएं
नीकुदेमुस के साथ अपनी बातचीत में यीशु मसीह ने उसे बताया। कि उसके लिए नया जन्म लेना आवश्यक है; (यूहन्ना 3:1-15) सामरी स्त्री के साथअपनी बातचीत में यीशु ने उसके हृदय में स्वयं के अर्थात जीवन के जल के प्रति प्यास उत्पन्न कर दी; (यूहन्ना 4: 1 -42) यूहन्ना अध्याय 3 में उसने स्वयं को जीवन की रोटी के रूप में प्रकट किया। जो सच्ची आत्मिक-भूख को तृप्त करती है।लूका 7:47,48 में, यीशु मसीह की यह शिक्षा दी कि उसे पश्चाताप करने वालों के पापों को क्षमा करने का अधिकारी है।
यूहन्ना अध्याय 10 में अच्छे चरवाहे के प्रवचन में यीशु ने प्रकट कर दिया के उद्धार का एकमात्र द्वार वही है और मनुष्य केवल उसी के द्वारा उद्धार प्राप्त कर सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है।
इसी आश्चर्यजनक उद्धार के निमंत्रण को लुका 14: 16 -24 में अधिक विस्तृत किया गया और उसमे गलियों और सड़को पर आवारा घूमने वालों को भी सम्मिलित कर दिया गया – इनमे गरीब, कंगालों, टुण्डे, लंगड़े और अन्धे सभी है। उद्धार की सभी कथाओं में सर्वाधिक प्रिय उड़ाऊ पुत्र के लौट आने की कथा है जो लुका अध्याय 15 में पाई जाती है।
2. दैनिक मसीही जीवन के विषय में यीशु की शिक्षाएँ
मत्ती 5: 33-48 में हमे शिक्षा दी गई है (1) शपथ न खाना (2) अपना दूसरा गाल फेर देना (3) शत्रुओं से प्रेम रखना। मत्ती 6:1 -4, 19- 21 दान के विषय में (1) दान गुप्त होना चाहिए (2) अपनी पूँजी को अनंत काल के लिए लगाना चाहिए। यीशु मसीह ने प्रार्थना के विषय में महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दी – मत्ती 6: 5-13; लूका 11:1 -13; यूहन्ना 14:13, 14; युहन्ना 16: 23, 24. इसके लिए चाहिए कि (1) प्रार्थना गुप्त में की जाए (2) निरंतर की जाए (3) प्रार्थना का क्षेत्र और शक्ति असीमित है।
यीशु मसीह ने यह शिक्षा दी कि इससे पहले कि परमेश्वर हमे क्षमा करें, हमे दुसरो को क्षमा करना आवश्यक है ; (मत्ती 6: 14, 15; मत्ती 5:23, 24) यीशु मसीह ने परीक्षा से पहले उपवास रखा और उसकी शिक्षा दी; (मत्ती 6: 16- 18; लुका 4:2)
यीशु ने जीवन की आवश्यकताओं के प्रति अपना झुकाव रखने के विरुद्ध चेतावनी दी और यह सिखाया कि यदि हम सबसे पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करते है तो वे वस्तुए (प्रतिदिन का भोजन, आश्रय तथा वस्त्र की आवश्यकता) प्रभु द्वारा हमे अवश्य प्रदान की जाएंगी; (मत्ती 6: 25-34) उसने शिक्षा दी यीशु मसीह को खुले रूप में प्रभु अंगीकार करना परमावश्यक है; (मत्ती 10:32,33, यूहन्ना 9:38)
यीशु मसीह ने मन परिवर्तन करने वालो को निर्देश दिया कि वे अपने घर लौटकर सबसे पहले अपने सम्बन्धियों के सम्मुख साक्षी दे; (मरकुस 5: 19) यीशु की शिक्षाओं में उद्धार पाने वालों’के लिए उद्धार के निश्चय की गूंज सुनाई देती है ; (यूहन्ना 3: 16, 18, 36; यूहन्ना 5 :24) ऊपर वाली कमरे के महत्वपूर्ण प्रवचन में जीवन में वास करने वाले पवित्र आत्मा की सेवकाई के विषय में बहुत कुछ बताया गया है, जो मार्गदर्शन करता है, संचालन करता है और विश्वासी को बल तथा शक्ति प्रदान करता है ; (यूहन्ना 14:16 – 26)
यीशु ने अपने विश्वासियों और चेलों से आराम का जीवन देने की प्रतिज्ञा नहीं की, परन्तु सताव का खुलकर उल्लेख किया और प्रत्येक परीक्षा में सहायता और अनुग्रह प्रदान करने की प्रतिज्ञा की; (यूहन्ना 16: 1-3; लूका 12: 11,12)
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3. फरीसियों और झूठे शिक्षकों के विषय में यीशु की शिक्षा
यीशु मसीह ने झूठे शिक्षकों और पाखण्डियों की जोरदार शब्दों में भतर्स्ना की। मत्ती 23: 13 -36 में, वह आठ बार कहता है, “हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों, “पद 13, (14 KJV), 15, 16, 23, 24,27 और 29 में वह उनको मुर्ख और अंधे अगुए भी कहता है। यूहन्ना 8:44 में यीशु ने उनसे कहा, वे “अपने पिता शैतान” से है- यह कठोर भाषा है।
मत्ती 16:6 में यीशु ने अपने चेलों को “फरीसियों और सदूकियों के खमीर से चौकस” रहने की चेतावनी दी, जो झूठे सिद्धांतों की शिक्षा देते थे, ये लोग पुनरुत्थान इत्यादि का इन्कार करते थे। यीशु ने अपनी शिक्षा में कहा कि कलीसिया के ये झूठे अगुए अपने चेले बनाने के लिए अथक प्रयास करते थे परन्तु ऐसा करके उनको पहले से “दूना नारकीय” बना देते थे ; (मत्ती 23: 15)
मत्ती 7: 15-20 उद्धारकर्ता की उन हजूठे भविष्यद्वक्ताओं से सावधान रहने के लिए एक चेतावनी है को वे भेड़ के भेष में फाड़ने वाले भेड़िए होते है। लूका 20: 45-47 चेलों के लिए शास्त्रियों से चौकस रहने की एक स्पष्ट चेतावनी है।
4. भण्डारीपन के विषय में यीशु की शिक्षा
यीशु मसीह ने लूका 12:16-34 में धन- सम्पति का उचित उपयोग करने की शिक्षा दी। धन-सम्पति धनवान की व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नहीं थी, क्योकि वह “मुर्ख” था, वास्तविक धन-सम्पति (पद 33,34) वह थी जो समय से पहले ही प्रभु के पास भेज दी गई थी।जब उस स्त्री ने मरकुस 12: 41 -44 के अनुसार दो दमड़ियाँ भण्डार में डाली तो यीशु ने इसकी उच्च प्रंशसा की क्योकि उसने अपनी बढ़ती में से नहीं, परन्तु अपनी गरीबी में सब कुछ दे दिया था।
मत्ती 25:14-30 में यीशु मसीह ने हमे शिक्षा दे है कि हम अपनी परमेश्वर प्रदत्त प्रतिभाओं को उसकी महिमा के लिए प्रयोग करें। लूका 19: 11- 27 में यीशु ने अपने चेलो को आदेश दिया कि वे उसके, “लौट आने तक लेन-देन” करें अर्थात उन प्रतिभाओं का उसकी महिमा और उसके राज्य के विस्तार के लिए प्रयोग करें, जो उसने हमें दे है। मसीही अपने धन, समय, प्रतिभाओं, वरदानो और अवसरों के भंडारी है।
5. स्वर्ग और नरक के विषय में यीशु की शिक्षाएँ
हमारे प्रभु ने सुसमाचार में नरक और अनंत दण्ड का वर्णन कम से कम सत्तर बार किया हैं। मत्ती 25: 49, “हे श्रापित लोगों, मेरे सामने से उस अनंत आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गई है।” यह यीशु मसीह था जिसने लूका 16: 19-31 में हमारे सन्मुख नरक में पीड़ा का स्पष्टम चित्र प्रस्तुत किया। मरकुस 9: 42- 48 नरक स बचाने के लिए महत्वपूर्ण चेतावनी है, जहाँ उनका कीड़ा नहीं मारता और आग नहीं बुझती, पद 44,46, 48,।
ऊपर वाली कमरे के प्रवचन में यीशु मसीह ने आश्वस्त करने वाले वचन कहे कि वह थोड़े समय के लिए इसलिए जा रहा है कि हमारे लिए जगह तैयार करे, और वह हमे लेने फिर वापिस आएगा; (यूहन्ना14:1-3) मरते हुए पश्चाताप करने वाले डाकू से यीशु ने कहा, “तू आज ही मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा।” (लूका 23:43) यीशु ने स्वर्ग को पिता परमेश्वर के साथ एक घर के रूप में प्रस्तुत किया, मत्ती 6:9; लूका 11:21 यीशु स्वर्ग से मरने के लिए और बहुत से पुत्रो को स्वर्ग में ले जाने के लिए आया. ( इब्रानियों 2:10)।
6. फलवन्त होने के विषय में यीशु की शिक्षा
यूहन्ना 15: 1- 17 में ऊपर वाले कमरे के प्रवचन का केंद्र, दाखलता और उसकी डालियाँ है, इससे यीशु मसीह की इच्छा है कि हम में “फल” उत्पन्न हो, ” अधिक फल,” “बहुत “अधिक फल”बाँझ अंजीर के वृक्ष के द्रष्टांत, लूका 13:6-9 में वृक्ष (मसीही) जो की फल नहीं लाता उसे काट दिया जाना था, नष्ट करके आग में डाल दिया जाना था। मत्ती 7: 16-20 में यीशु यह शिक्षा देता है, “उनके फलों से तुम उनको पहचान लोगे।”
बीज बोने वाले के द्रष्टांत, मत्ती 13: 1-23 में यीशु मसीह अपनी यह इच्छा व्यक्त करता है कि प्रत्येक मसीही को फलप्रद होना चाहिए- कुछ तोह तीसगुना, कुछ को साठ गुना और कुछ को सौ गुना। मसीही होने के नाते हमे छांटा जाना चाहिए जिससे हुमाधिक फल ला सकें। यूहन्ना 15:2 खोदा जाना और खाद डाला जाना, “छांटे जाने का एक कटु अनुभव है, (लूका 13:8)परन्तु यह अत्यावश्क है। लूका 6: 43- 46 के अनुसार मसीही होने के नाते हमे स्वयं में आत्मा के फल उत्पन्न करने है और उसके लिए आत्माओं को जीतना है।
7. भविष्यवाणी के विषय में यीशु की शिक्षा
मत्ती 24,25 अध्याय में जैतून के पर्वत का प्रवचन, अधिकांश भविष्यवाणी सम्बन्धी विषयों पर है। मत्ती 24: 1,2 में येरूशलेम के नष्ट किये जाने की भविष्यवाणी है, जो ईस्वी सन 70 में पूरी हुई। मत्ती 24: 4- 14 इस युग के बिगड़ते हुए जीवन से सम्बंधित है, जिसमे हम रहते है। मत्ती 24:15 -26 उस महा क्लेश से सम्बंधित है, याकूब का संकट-काल।
मत्ती 24: 27-31 ये पद महिमा में प्रभु के वापस आने के विषय में बताते है, इससे अधिक विवरण अंजीर के वृक्ष के द्रष्टांत (पद 32 -51) और दस कुँवारियों के द्रष्टांत (मत्ती 25:1-13) द्वारा जोड़े गए है। मत्ती 25: 31-46) ये पद देश-देश के लोगों के न्याय के बारे में बताते है, जिसमे बकरियां और भेड़े अलग-अलग की जाएँगी। मत्ती 13: 1-52 में जो सात रहस्य पाए जाते है, वे स्वर्ग के राज्य के विभिन्न दृटिकोण है।
सारांश
मेरे विचार में यीशु मसीह की शिक्षाओं का सार एक शब्द- प्रेम में निहित है। उसने 600 आज्ञाओं का सारांश जिसके अंतर्गत कट्टर यहूदी अपना जीवन व्यतीत करते थे, दो आज्ञाओं के अधीन कर दिया (1) परमेश्वर से प्रेम रख और (2) अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख; (मत्ती 22 : 37-39) प्रेम मसीह का एक सर्वोच्च चिन्ह बन गया है, यूहन्ना 13:35, “यदि (तुम) आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे की तुम मेरे चेले हो।”
प्रेम मसीह का एक सर्वोच्च चिन्ह बन गया है, यूहन्ना 13:35, “यदि (तुम) आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे की तुम मेरे चेले हो।” यूहन्ना 15: 13 में यीशु हमारे बदले क्रूस पैर अपनी मृत्यु के विषय में कहता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए जो सबसे बड़े प्रेम का प्रदर्शन सम्भव हो सकता है; उसी प्रेम को प्रदर्शित कर रहा था। यूहन्ना 17 अध्याय में यीशु की मध्यस्थता की प्रार्थना एकता के लिए की गई विनती है। देखिये पद 11, 21,22 और 23 यह आवश्यक रूप में जैवीय एकता नहीं है, वरन आत्माओं को जीतने में अभिप्राय की एकता है।
यीशु ने कलीसिया अर्थात अपनी देह को संसार में रख छोड़ा है ताकि वह उनकी अनुपस्तिथिति में साक्षी दे; मत्ती 28: 19; मरकुस 16:15, यीशु का सिद्धांत हमे यह शिक्षा देता है कि हम केवल प्रेम रखने वालों से ही प्रेम न करे, परन्तु हर एक से प्रेम करे, यहाँ तक कि अपने शत्रुओं से भी, क्योकि उसने पहले से ही उनसे प्रेम रखा; ( मत्ती 5: 44; 1 यूहन्ना 4:19; रोमियो 5:8,